Battle of Kanarpi Ghat
About this text
Introductory notes
The poem "Ath Kanarpi Ghat Ladai" (or The Battle of Kanarphi Ghat) is a poem written by a Maithil Brahman in the Baiswari dialect. It was composed towards the end of the 18th century. It describes the victory of Narendra Singh (an ancestor of the Maharaj of Darbhanga) over Ram Narayan Bhup. The text used here is the one prepared by George Abraham Grierson and Babu Narayan Singh (of Jogiyara) and was published in the Journal of Asiatic Society of Bengal in 1885. Our selections here contain references to charity,celebration and feasts.
Primary Reading "The battle of Kanarpi Ghat", edited and translated by Sri Narayan Singh and G.A.Grierson, Journal of Asiatic Society of Bengal, Vol.54, Part.I, (Calcutta: Asiatic Society,1885).
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॥२॥ छन्द भुजंगप्रयात ।
चले फौज नाजिम को बाजत नगारे ।
सभे खुल गए तोपखाने सकारे ॥
घटा गज के ऊपर सो(?) गाजत निशाने(?) ।
जजायिल धमक्का लसे(?) चन्द्रवाने(?) ॥
अही घर महि कोल दिकपाल कम्पै(?)।
उड़े गई(?) अम्बर भरे सूर झम्पै(?)॥
दमामा नफीरी ओ कर्नाल बोलै(?)॥
बड़े दलदले रे सभे दीप डोलें(?)॥
खड़ेतै(?) खड़े खूब खामिन के आगे(?)।
बड़े रंग तें(?) जंग के जोर आगें(?)॥
बड़े मोद ले खुल गए हार आबें(?)।
जो पकखर लिए शेख सैयद सवारे॥
जो आगे कड़ीबान के दल बीराजै(?)।
बरच्छा के छाहें(?)किए रंग साजै ॥
चलो जी शिताबी लगी दूर जाना ।
लदे साथ छककड़ में केते खजाना ॥
बड़ो दाप तें कूच दर कूच आबै(?)।
कहेय(?) सान को नाहि मघवान पाबै(?)॥
सभै(?) तो पटी बान्ही(?) कम्मर जड़ावा ।
पूछे राह मेँ दूर केते भावाड़ा ॥२॥
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॥ ५ ॥ दोहा ।
खारिआत दै सभनि को करि के बिबिध बिलास ।
चलै सिपाह महा बली मिथिला पति के पास ॥
हारपाल भूपाल तै(?) अर्ज कियो हैं(?) जाय ।
हालबन्द तैयार गै हाजिर पहुंचे(?) आय ॥
एक एक करि मोजरा सभ को लीन्ह(?) सलाम।
लाल महा कबि बैठि गौ तहाँ जहाँ मुख सलाम ।
दच्छिन बैठे नृपति को बाबू और दिमान ।
उत्तर ओझा बैठि गौ साथ लिए मतिमान ॥
पच्छिम सकल सिपाह गन बकसी बैठे पास ।
बने बनाए देखिये पीछे खास खबास ॥
रैनी दिबस हाजिर रहै रतन रतन सो जान ।
मोतसदी तलिका करै तोफा बान कमान ॥
बैठे सभ के बीच मेँ(?) महाराज नरइन्द्र ।
सोभा बरना(?) जात नहिं ज्यों तारन मेँ(?) चन्द्र॥५॥
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॥ ६ ॥ छन्द भुजंगप्रयात ।
सुपण्डित(?) कहूँ पच्छ रच्छा संभारै(?)।
कहूँ चार बैदिक पढ़े(?) बेद सारें(?) ॥
कहूँ ज्योतखी सो घड़ी नेक साधें(?) ।
कहूँ आगमी यंत्र के मंत्र लाधें(?) ॥
काबिश्वर(?) लगें सौ कड़ाखा बनाबै(?)।
कहूँ भाँट बैठे कबित्ये(?) सुनाबै ॥
कहूँ सर्व जानै कहें सर्ब जाने ।
कहूँ कोख साहित्य हूँ को बखाने ॥
कहूँ मोलना(?)सें(?) करें(?) बैत बातें(?)।
कहूँ मोनसी(?)पारसी रंग रातें॥
कहूँ बल्लभी सो दही हार लाबै(?)॥
लिए गागरी नागरी रंग लाबै(?)॥६॥
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॥ १३ ॥ छन्द त्रिभंगी ।
सुर पुर के राजा संगहि भाजा मेरु समाजा जाय परे(?)।
तहाँ करत बड़ाइ दुर्गा माई लेऊ(?) बचाई अधिक डरै ॥
को गनति महीसा रंगाधीसा लावें(?) सीसा सुनी ठहरै(?) ।
घुली(?) के दप्पें दिनकर झप्पें(?) मेदनि कम्पै(?) को ठहरें(?)॥
बीजापूर बड़का (?) कौध सुरंगा जित नीय(?) संका(?) जोग भरै ।
(?)कलकत्ता नियतनि सत्ता तेजहि लत्ता फिरति फीरै ॥
दच्छिन(?) नर नाहा तेजि सिलाहा भेजहि बाहा को ठहरै ।
ढक्का(?) के रानी फिरहि देवानी ओ मकमानी नीप(?) हहरै ॥
डिल्ली सगवग्गी कासी भग्गो बेतिया टग्गी को ठहरै ।
दीनन सभ के गति डरत सकल अति मैथिल भूपति को बहरै(?)॥ १३ ॥
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॥ १६ ॥ दोहा ।
उरतू(?) नीय(?) मिथिलेस को बरनत हैं कबि लाल ।
अमर नगर तें(?) चौगुनौ (?) लागत अधिक विसाल ॥ १६ ॥
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॥ १७ ॥ छन्द भुजंगप्रयात ।
फुहाड़ा गड़े ओ बने चारु हट्टा ।
हजारी बेपारी चले बानी(?) ठट्टा ॥
घनेरे जहाँ जाचि के जाचि आबै ।
नयी अंगना सो बनी गीत गाबै ॥
कि जाके चखे तें सुधा होत खट्टा ॥
कहूँ तें बतासा बनै ओ मिठाई ।
कहूँ आनि मेबा धरे हैं बनाई ॥
कहूँ मीसरी ओ जिलेबी पके हैं ।
करै(?) मोल जोलै(?) बहुता खड़े हैं(?)।
कहूँ सक्करे ओ जिलेबी पके हैं(?)।
कहूँ तें(?) सोहारी धरी घीउ पक्की॥
जबाड़ा सरोही कहूँ तेग बिक्कौ(?)॥
कहूँ जोहरे मोहरे देत सिक्कौ॥
कहूँ तोसखाने लगी भीर भारी।
तुरंगें बिकै लच्छ कच्छी खन्हारी ॥
कहूँ मत्त मातंग ऊंटे घनेरा ।
कहूँ चित्र लेखत खड़े हैं चितेरा ॥
कहूँ दाख लाखै(?)कहूँ हैं कोहाड़ा ॥
कहूँ हौज में(?) बेस छुटत फ़ोहाड़ा ।
कहूँ बादला साल बाफी दोसाला ।
कहूँ लाल मोती बिकै कण्ठ माला(?)॥
कहूँ बाफदा थान खासा पोसाकी ।
कहूँ नाहि जाने कोऊ मोल जा को ॥ १७ ॥
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॥ १९ ॥ छन्द भुजंगप्रयात ।
दोऊ ओर फौजै(?) भयी हैं (?) तयारी ।
तहां(?) बीच दरम्यान दरिआओ भारी ॥
चलै बान कम्मान गोला हजारे ।
सभैं एक हो कै गिरै जो सितारे ॥
छड़ीबान छूटे गजर के घड़ी सी ।
छकी आसमानो लगी फुलझड़ी सी ।
पहुँच के बहेलिएँ(?) ने गोली सें मारी ।
हटी जाय पीछे लटी फौज सारी ॥
जो घाइल पडे(?) सो चढ़नु जाय खाटें(?)।
कहूँ कोऊ आओन सके नाहि बाटें(?)॥ १९ ॥
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॥ २१ ॥ छन्द भुजंगप्रयात ।
चलें(?) बैस बग्घेल बछबौत हाड़ा ।
लिएँ(?) हाथ के बीच तेगा जड़ावा ॥
बनै सूर के सूर हाड़ा बिराजै ।
चहु ओर सै(?) दुन्दुभी जोर बाजें ॥
चले बान कम्मान गोला हजारै(?)।
बहादुर दोऊ बाग को नाहि फेरै(?)॥
कदम दर कदम तें पड़ी फौज जाइ ।
महा अष्टमी को लगी है लड़ाई ॥
दमामा नफीरी घनें(?) संख बाजें ।
अनोरे(?) पड़ी राम चंगे आवाजें(?)।।
उठाई सलाबति ने घोड़े के बागें(?)।
भए सिंह(?) उमराओ आड़े हो आगें ॥
बहादुर दोऊ को कहाँ ल्यो बड़ाई ।
पड़ी कर्न पारथ के ऐसी लड़ाई॥
निकलि खाप तें(?) खूब तेगा चली है ।
महा घन घटा दामिनी जो भयी है ।
जखम खाय पीछे भए हैं(?) नचारा ।
पकड़ि कें(?) सलाबति को नीचे दे मारा ॥
चले(?)धाय कै देखि आगे भिखारी ।
पहुँच तो सके नाहि हौदे को मारी ॥
लगी आनि गोली गिरै बीर बंका ।
भरी सी पुरंदर(?) पूरी जाय संका ।।
चहु ओर जा की छकी कीर्ति(?) जाई।
लिएँ फूल माला परी पास आई ॥
बड़ो बीर साथी हजारै(?) हजारै(?)।
सभै छाड़ि घोड़ा भयौ हैं(?) उतारै(?)॥ २१ ॥
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॥ २२ ॥ छन्द नाराच ।
पड़े(?) उठाय धाय धाय एक एक सें लड़ें ।
मनो गजेंद्र सो गजेंद्र जंग जोर को धरें(?) ॥
महीप मित्रजीत राओ बखत सिंघ(?) को धरै ।
चखा चखी चपेट चोट लोट पोट वें(?) गिरें ।
सनासनी घनाघनी सुनी न जात तीर के ।
पड़े(?) जो खूब रंग रंग रंग जो अमीर के ॥
जमातिदार और चोट को करें(?) निरन्तरा ।
पडे(?) कमान बान सै(?) मही अकास अन्तरा ॥
सुन्यौ बिपच्छ पच्छ लच्छ धीरता तबै गयी ।
घड़ा घड़ी हजार बार तोप की जलै भवी ॥
उठे अनोर घोर सोर ढाल की चटा चटी ।
जहाँ तहाँ चहु दिसा क्रियान की खटा खटी ॥
भला भला हला करै(?) लड़े(?) जो बीर कोप सै ।
बदा बदी गिरें(?) जो मुंड(?) कोटि कोटि धोप तें(?)॥
कटै(?) कबन्ध भूमि घूमी घोर भाउरी भरें(?) ।
हहा गिराय कै हलाल केहू(?)काहू(?) को करै(?)॥
मुमुंड क(?) रक्त (?) पानि ओ सेमार केस के ।
नदी बही जहाँ तहाँ मैदान मिथिलेस के ॥
भयो फतेह बैरी जाल को निदान भोगिनी ।
गयी अघाश(?) खाय खाय गंड(?) जोगिनी ॥
असेख मुंड(?)माल जाल कालिका ले आउती ।
कराल भूत साथ भूतनाथ को पेन्हाउती(?) ॥
सबे फिरै मैदान छाड़ि फौजदार भागि गौ ॥
भयो फतेह भूप को सुकीर्ति बम्ब (?) बाजि गौ ॥ २२ ॥
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॥ २३ ॥ दोहा ।
रन फतेह भौ भूप को फौजदार गौ भागि ।
चौगुन वै तिरहुति को कीर्ति उठी है जागि ।
(?) हाकिम जानि कै फत्त (?) भिखारी एक ।
राखि लियौ जगदम्ब ने महाराज के टेक ॥ २३ ॥
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॥ २४ ॥ छन्द भुजंग्प्रयात ।
जो पीछे(?) लगे हैं(?) सभें(?) राओ(?) राने ।
लुटे तोसखाने नगारे निसाने ॥
कहूँ पालकी लालकी कोटि हीरा ।
लुटे(?) तोसदाने(?) भरें(?) खास बीरा ॥
ज्यौ तम्बू कनातें(?) लूटें(?) ऊंट(?) गाड़ी ।
लूट है कहूँ केउ(?) काहू पिछाड़ी ॥
बरच्छी धमाका लूटे साँगि नेजा ।
गथे हैं कहूँ केऊ काहू करेजा ॥
कहूँ बाजि हाथी लुटे(?) बैस धाई ।
महाराज जू को फिरी हैं(?) दोहाई ॥ २४ ॥
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॥ २५ ॥ दोहा ।
लूटि कूटि लौह्यो(?) सभनि लिधुर लपेटे कंग ।
लाल सुकबि षह (?) भाँति भौ समर भिखारी भंग ॥ २५ ॥