Essential Kabir
About this text
Introductory notes
Kabir(1398-1448) is a North Indian devotional poet, who was born in Banaras and was active in the fifteenth century. His corpus of work has a complex textual history with innumerable manuscripts and variants of poems and aphorisms. According to Vinay Dharwadker, thereare three different schools of manuscript-traditions pertainingto Kabir's work, the Nanak Panth (northern), Dadu Panthi(western)and the Kabir Panth. His work survives in various languages-Braj Bhasha, Avadhi, Bhojpuri, Rajasthani, Khadi Boli, Punjabi besides showing traces of Sanskrit, Persian and Arabic elements. Our selection here is from Arvind Krishna Mehrotra's selected and translated edition of Kabir's poems titled "Essential Kabir".
Primary Reading Essential Kabir, trans.Arvind Krishna Malhotra, (New Delhi: Hachette India,2011)
ESSENTIAL
kabir
SPECIAL BILINGUAL EDITION
Translated with an Introduction by
Arvind Krishna Mehrotra
Black Kite Hachette India
1.
[Page 16]
जियरा जाहुगे हंम जांनीं ।
आवैगी कोई लहरि की बूड़ेगा बिनु पांनीं ॥ टेक ॥
राज करंता राजा जाइगा रूप दिपंती रांनीं ।
जोग करंता जोगी जाइगा कथा सुनंता ग्यांनीं ॥
चंद जाइगा सूर जाइगा पवन औ पांनीं ।
कहै कबीर तेरा संत न जाइगा रांम भगति ठहरांनीं ॥
2.
[Page 18]
संतौ भाई आई ग्यान की आंधी रे ।
भ्रम की टाटी सभै उड़ानीं माया रहै न बांधी रे ॥टेक॥
दुचिते की दोइ थूनि गिरांनीं मोह बलेंडा टूटा ।
त्रिसनां छांनि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥
आंधी पाछैं जो जल बरसै तिहिं तेरा जन भींनां ।
कहै कबीर मनि भया प्रगासा उदै भानु जब चीनां ॥
3.
[Page 24]
चलहु बिचारी रहहु संभारी कहतो हूं ज पुकारी ।
रांम नांम अंतरगति नांहीं तौ जनम जुवा ज्यौं हारी ॥टेक॥
मूंड मुड़ाई फुलि बैठे कांननि पहिरी मंजूसा ।
बाहरि देह खेह लपटांनीं भीतरि तौ घर मूसा ॥
गालिब नगरी गांउं बसाया हांम कांम हंकारी ।
घालि रसरिया जब जम खैंचैं तब का पति रहै तुम्हारी ॥
छांड़ि कपूर गांठि बिख बांधा मूल हुवा नहिं लाहा ।
मेरै रांम की अभै पद नंगरी कहै कबीर जुलाहा ॥
4.
[Page 28]
मन रे संसार अंध कुहेरा ।
सिरी प्रगटा जम का पेरा ॥टेक॥
बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरूक मुए हज जाई ।
जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति किनहुं न पाई ॥
कबित पढ़े पढ़ि कबिता मूए कापड़ी कैदारै जाई ।
केस लूंचि लूंचि मुए बरतिया इनमैं किनहुं न पाई ॥
धन संचंते राजा मुए गड़िले कंचन भारी ।
बेद पढ़े पढ़ि पंडित मूए रूप देखि देखि नारी ॥
रांम नांम बिनु सभै बिगुते देखहु निरखि सरीरा ।
हरि के नांम बिनु किनि गति पाई कहै जुलाह कबीरा ॥
5.
[Page 30]
पंडित बाद बदै सो झूठा ।
रांम कहें दुनियां गति पावै खांड़ कहें मुख मीठा ॥टेक॥
पावक कहें पांव जे दाझै जल कहें त्रिखा बुझाई ।
भोजन कहें भूख जे भाजै तौ सब कोई तिरि जाई ॥
नर कै संगि सुवा हरि बोलै हरि परताप न जांनैं ।
जौ कबहूं उड़ि जाइ जंगल मैं बहुरि सुरति नहिं आंनैं ॥
बिनु देखें बिनु अरस परस बिनु नांम लिऐं का होई ।
धन के कहें धनि जौ होई तौ निरधन रहै न कोई ॥
सांची प्रीति बिखै माया सौं हरि भगतन सौं हांसी ।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपजै तौ बांधे जमपुर जासी ॥
6.
[Page 38]
भूली मालिनीं है एउ ।
सतिगुरु जागता है देउ ॥टेक॥
पाती तोरै मालिनीं पाती पाती जीउ ।
जिसु मूरति कौं पाती तोरै सो मूरति निरजीउ ॥
टांचनहारै टांचिया दै छाती ऊपरि पाउ ।
जे तूं मूरति सांचि है तौ गढ़नहारै खाउ ॥
लाडू लावन लापसी पूजा चढ़ै अपार ।
पूजि पुजारा लै गया दै मूरति कै मुहिं छार ॥
पाती ब्रह्मां पुहुप बिसनूं मूल फल महादेव ।
तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किसकी सेव ॥
मालिनी भूली जग भूलांनां हम भूलांनें नांहिं ।
कहै कबीर हंम रांम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥
7.
[Page 78]
तननां बुननां तज्यौ कबीर ।
रां नांम लिखि लियौ सरीर ॥टेक॥
मुसि मुसि रोवै कबीर की माई । ए बारिक कैसे जीवहिं खुदाई ॥
जब लगि तागा बाहौं बेही । तब लगि बिसरै रांम सनेही ॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई । पूरनहारा त्रिभुवनराई ॥
8.
[Page 86]
इहु (यहु) धन मेरै हरि कै नांउं ।
गांठि न बांधउं बेंचि न खांउं ॥टेक॥
नांउं मेरै खेती नांउं मेरै बारी । भगति करउं जन सरनि तुम्हारी ॥
नांउं मेरै माया नांउं मेरै पूंजी । तुमहिं छांड़ि जानउं नहिं दूजी ॥
नांउं मेरै बंधिप नांउं मेरै भाई । अंत की बेरियां नांउं सहाई ॥
नांउं मेरै निरधन ज्यूं निधि पाई । कहै कबीर जैसैं रंक मिठाई ॥
9.
[Page 98]
कहा नर गरबसि थोरी बात ।
मन दस नाज टका दस गांठी ऐंड़ौ टेढ़ौ जात ॥टेक॥
बहुत प्रताप गांउं सौ पाए दुइ लख टका बरात ।
दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥
नां कोऊ लै आयौ यहु धन नां कोऊ लै जात ।
रावन हूं तैं अधिक छत्रपति खिन महिं गए बिलात ॥
हरि के संत सदा थिर पूजौ जो हरिनांम जपात ।
जिन पर क्रिपा करत है गोबिंद ते सतसंगि मिलात ॥
मात पिता बनिता सुत संपति अंति न चले संगात ।
कहत कबीर रांम भजु बउरे जनम अकारथ जात ॥
10.
[Page 108]
जौ पै रसनां रांमु न कहिबौ । तौ उपजत बिनसत भरमत रहिबौ ॥
कंधि काल सुखी कोइ न सौवे । राजा रंकु दोऊ मिली रोवै ॥
जस देखिअै तरवर की छाया । प्रांन गएं कहु काकी माया ॥
जीवत कछु न किया प्रवांनां । मुएं मरम को काकर जांनां ॥
हंसा सरवर कंवल सरीर । रांम रसांइन पिउ रे कबीर ॥
11.
[Page 110]
मेरी-मेरी करतां जनम गयौ ।
जनम गयौ परि हरि न कह्यौ ॥टेक॥
बारह बरस बालपन खोयौ बीस बरस कछु तप न कियौ ।
तीस बरस तैं रांम न सुमिरयौं फिरि पछितांनां बिरिध भयौ ॥
सूखे सरबरि पालि बंधावै लूनें खेति हठि बारि करै ।
आयौ चोर तुरंगहिं लै गयौ मोहड़ी राखत मुगध फिरै ॥
सीस चरन कर कंपन लागे नैंन नीरू असराल बहै ॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ धन संच्यौ कछु संगि न गयौ ।
आई तलब गोपालराइ की माया मंदिर छांड़ि चल्यौ ॥
12.
[Page 134]
बाबा जोगी एक अकेला ।
जाकै तीर्थ ब्रत न मेला ॥टेक॥
झोली पत्र बिभूति न बटवा, अनहद बैन बजावै ।
मांगि न खाइ न भूखा सोबै , घर अंगनां फिरि आवै ॥
पांच जनां की जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला ।
कहै कबीर उनी देसि सिधाये, बहुरि न इंहि जुगि मेला ॥